Thursday, August 4, 2011

दिल के शीशे में कोई, यो ही उतर आती है - Ghazal

दिल के शीशे में कोई, यो ही उतर आती है |
बन के परछाई मेरी, बात लिख के जाती है ||

कोशिशे करता हूँ फिर भी न चला, एक भी अक्षर उसका |
लगता शब्दों को स्वयं आँक, गजले गुनगुनाती है ||

चाहता हूँ की पकड़ पूछ लू, वह धुंध में आने का सबब |
जब थम - कदम बढाता हूँ, वो घूम के नट जाती है ||

मैं इधर चैन को बैचेन रहा, कौन क्या जाना क्या आना है |
देखते - देखते वह छाया, झट से मुकर जाती है ||

1 comment:

Anshu said...

Great gazal paji. Sahi.
Achcha likh rahe hai aap!